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{{KKRachna
|रचनाकार=वत्सला पाण्डे
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>नदी बहती
भीतर भीतर
गुपचुप चुपचुप
आपाधापी के
शिशिर में
जमी है
उदासी की परत
नदी है कि
बहती रही
गरम सोते सी
अपने ही भीतर
देवदार भी
बर्फ की चादर
ओढे. खडा. रहा
उम्मीदों के सूरज की
चाह में
नदी अब भी
बह रही है
देवदार को
शायद
पता ही नहीं
</poem>
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|संग्रह=
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भीतर भीतर
गुपचुप चुपचुप
आपाधापी के
शिशिर में
जमी है
उदासी की परत
नदी है कि
बहती रही
गरम सोते सी
अपने ही भीतर
देवदार भी
बर्फ की चादर
ओढे. खडा. रहा
उम्मीदों के सूरज की
चाह में
नदी अब भी
बह रही है
देवदार को
शायद
पता ही नहीं
</poem>