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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
बस गया तेरा ख़्वाब आँखों में
तैरते हैं गुलाब आँखों में

चलते रहते हैं हर घड़ी हर पल
कुछ हिसाबो-किताब आँखों में

मुझको तारे दिखाई क्या देंगे
है यहाँ आफ़ताब आँखों में

तेरा दीदार मयकशी जैसा
भर गई है शराब आँखों में

दर्द मिल जायेंगे टहलते हुए
झाँकिए तो जनाब आँखों में

हलचलें दिल की इस क़दर फैलीं
आ गया इन्क़लाब आँखों में

ऐ ‘अकेला’ वो लब न खोलेंगे
ढूँढ़ना है जवाब आँखों में
<poem>
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