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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
मान्यवरो मैं भी कुछ बोलूं अगर इजाज़त हो
आज ज़ुबां के बंधन खोलूं अगर इजाज़त हो

लौट रहे बहती गंगा से नहा नहा कर सब
हाथ ज़रा क्या मैं भी धोलूं अगर इजाज़त हो

राग तुम्हारा मस्त कर रहा है तबियत मेरी
इस पर मैं थोड़ा सा डोलूं अगर इजाज़त हो

देकर मुझ भूखे को भोजन बाबू पुण्य किया
अब मैं उस पत्थर पर सोलूं अगर इजाज़त हो

सपनों के बाज़ार में चलने से इन्कार कहाँ
पर मैं अपनी जेब टटोलूं अगर इजाज़त हो

मैंने ये कब बोला तुमसे कोई शिकायत है
बस अपनी क़िस्मत पर रो लूं अगर इजाज़त हो
<poem>
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