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दफ़्तर के बाद-१ / रमेश रंजक

2 bytes added, 05:55, 19 दिसम्बर 2011
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कुछ ऐसा बाँध दिया बंसी मन
कुर्सी के दर्द ने
गुज़रे हम गाते चौराहों से
अनमने ।
जाने क्यों कई मर्तबा
व्यंग्य भरे खिलखिला उठे
मुट्ठी भर जेब के चने गुज़रे हम अनमेनेअनमने ।
</poem>
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