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|संग्रह=वंशी और मादल / ठाकुरप्रसाद सिंह
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नदी किनारे
 
बैठ रेत पर
 घन घने कदम्ब के तले 
होगे बजा रहे
 
वंशी
 
तुम मेरे प्रिय साँवले
 
एक हाथ से दिया बारूँ
 
एक हाथ से आँखें पोंछूँ
 
सोचूँ
 
मुझसे भी होंगे क्या
 
बिरह ताप के जले
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