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भीतर तैं बाहर लौं आवत / सूरदास

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सूरदास प्रभु अगनित महिमा, भगतनि कैं मन भावत ॥<br><br>
भावार्थ :-- कन्हाई घरके भीतरसे घर के भीतर से अब बाहरतक बाहर तक आ जाते हैं । घरमें घर में और आँगनमें आँगन में चलना अब उनके लिये सुगम हो गया है; किंतु देहली रोक लेती है । उसे लाँघा नहीं जाता है, लाँघनेमें लाँघने में बड़ा परिश्रम होता है, बार-बार गिर पड़ते हैं । बलरामजी बलराम जी (यह देखकर) मन-हीमन ही-मन कहते हैं - `इन्होंने (वामनावतारमेंवामनावतार में) पूरी पृथ्वी तो साढ़े तीन पैरमें पैर में नापली और ऐसा रंग-ढंग बनाये हैंकि हैं कि घर की देहली इन्हें रोक रही है ।' सूरदासके स्वामीकी सूरदास के स्वामी की महिमा गणनामें गणना में नहीं आती, वह भक्तोंके चित्तको भक्तों के चित्त को रुचती (आनन्दित करती) है ।