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सच ये है पहले जैसी वो चाहत नहीं रही
लहजा बता रहा है मुहब्बत नहीं रही

कुछ वक़्त मेरे साथ गुज़ारा ज़रूर था
अब वक़्त गुजरने पे ज़रूरत नहीं रही

दोज़ख सा लग रहा है मुझे सारा ज़माना
तेरे बिना वो प्यार की जन्नत नहीं रही

सारे फ़साद तुमसे रक़ीबों के लिए थे
हक वक़्त सोचने की वो आदत नहीं रही

पहले थी दूर से भी तुझे देखने की चाह
इतना क़रीब आया की हसरत नहीं रही

बुझते हुए चराग़ से हैं हम तो ऐ 'मनु'
जीने को जी रहे हैं पर हिम्मत नहीं रही</poem>
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