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चलन से बाहर / मदन गोपाल लढ़ा

633 bytes added, 08:26, 24 मार्च 2012
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झुलसा हूँ अब तो सिलवानी ही पड़ेगीसूर्यनारायण कपड़ों की नई जोड़ीतीक्ष्ण निगाहों सेशौक नहीं भटका हूँ आग उगलती लू में।मेरी मजबूरी है।
मैं मरूपुत्रघिस गए हैं मरूभौम कीमेरे पहनने के कपड़ेरेत का कण हूँ खो गई है चमकमाँ !खुलने लगे हैं टाँकेबरसा दो ढीले पड़ गए हैं काजनिकलने लग गए हैं बटनदर्जी ने साफ कर दिया है इनकारअब रफू से नहीं चलेगा काममरम्मत के खर्च सेकहीं बेहतर हैबनवा ली जाए नई पोशाकवैसे भी यह नहीं चलेगी ज्यादा दिन। बीवी तो कहती हैईमानदारी के सूती कपड़ों कास्नेह-जलअब चलन भी नहीं रहा।
</Poem>
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