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क़तआत / ‘अना’ क़ासमी

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क़तातरूठना मुझसे मगर ख़ुद को सज़ा मत देनाजुल्फ़ रूख़सार से खेले तो हटा मत देना
अब्र बेताब होके चीख़ पड़ामेरे इस जुर्म की क़िश्तों में सज़ा मत देनाबर्क़ अँगड़ाई लेके जाग उठीक़तरा-क़तरा जिगर से खूँ टपकारात तनहाई लेके जाग उठीबेवफ़ाई का सिला यार वफ़ा मत देना
कौन आयेगा दहकते हुए शोलों के परे
थक के सो जाऊँ तो ऐ ख़्वाब जगा मत देना
सारी दुनिया को जला देगा तिरा आग का खेल
भड़के जज़्बात को आँचल की हवा मत देना
ख़ून हो जायें न क़िस्मत की लकीरें तेरी
मैले हाथों को कभी रंगे-हिना मत देना
ओछी पलकों पे हसीं ख़्वाब सजाने वाले
मेरी आँखों से मेरी नींद उड़ा मत देना
ख़ूब हरियाये हैं चने के खेतबेरियाँ फल रही हैं आ जाओफुरसतों के भी कुछ तक़ाज़े हैंछुट्टियाँ चल रही हैं आ जाओसोच लेना कोई तावील1 मुनासिब लेकिनइस हथेली से मिरा नाम मिटा मत देना
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