भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क़तआत / ‘अना’ क़ासमी

764 bytes removed, 12:24, 10 अप्रैल 2012
{{KKCatGhazal‎}}‎
<poem>
रूठना मुझसे मगर ख़ुद को सज़ा मत देनाअब्र बेताब होके चीख़ पड़ाजुल्फ़ रूख़सार बर्क़ अँगड़ाई लेके जाग उठीक़तरा-क़तरा जिगर से खेले तो हटा मत देनाखूँ टपकारात तनहाई लेके जाग उठी
मेरे इस जुर्म की क़िश्तों में सज़ा मत देना
बेवफ़ाई का सिला यार वफ़ा मत देना
कौन आयेगा दहकते हुए शोलों के परे
थक के सो जाऊँ तो ऐ ख़्वाब जगा मत देना
सारी दुनिया को जला देगा तिरा आग का खेल
भड़के जज़्बात को आँचल की हवा मत देना
ख़ून हो जायें न क़िस्मत की लकीरें तेरी
मैले हाथों को कभी रंगे-हिना मत देना
ओछी पलकों पे हसीं ख़्वाब सजाने वालेख़ूब हरियाये हैं चने के खेतमेरी आँखों से मेरी नींद उड़ा मत देनाबेरियाँ फल रही हैं आ जाओफुरसतों के भी कुछ तक़ाज़े हैंसोच लेना कोई तावील1 मुनासिब लेकिनइस हथेली से मिरा नाम मिटा मत देनाछुट्टियाँ चल रही हैं आ जाओ
</poem>
{{KKMeaning}}