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भावार्थ :-- (सखाओं ने कहा-) `श्याम! खेलनेमें खेलने में कौन किसका स्वामी है (तुम व्रजराजके व्रजराज के लाड़िले हो तो क्या हो गया ) । तुम हार गये हो और श्रीदामा जीत गये हैं, फिर झूठमूठ झूठ-मूठ झगड़ा करते हो ? जाति-पाँति तुम्हारी हमसे हम से बड़ी नहीं है (तुम भी गोप ही हो) ओर हम तुम्हारी छायाके छाया के नीचे (तुम्हारे अधिकार एवं संरक्षणमेंसंरक्षण में) बसते भी नहीं हैं । तुम अत्यन्त अधिकार इसीलिये तो दिखलाते हो कि तुम्हारे घर (हम सबसेसब से) अधिक गाएँ हैं ! जो रूठने-रुठानेका रुठाने का काम करे, उसके साथ कौन खेले ।' (यह कहकर) सब साथी जहाँ-तहाँ खेल छोड़कर) बैठ गये । सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी तो खेलना ही चाहते थे, इसलिये नन्दबाबाकी नन्दबाबा की शपथ खाकर (कि बाबाकी बाबा की शपथ मैं फिर ऐसा झगड़ा नहीं करूँगा ) दाव दे दिया ।