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{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय; सुनहरे शैवाल / अज्ञेय
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<poem>
दूर सागर पार
पराए देश की अनजानी राहें ।राहें।
पर शीलवान तरुओं की
गुरु, उदार
पहचानी हुई छाँहें ।छाँहें।
::छनी हुई धूप की सुनहली कनी को बीन,
::तिनके की लघु अनी मनके-सी बींध, गूँथ, फेरती
पूछ बैठी :
कहाँ, पर कहाँ वे ममतामयी बाँहें ?
'''ब्रुसेल्स (एक कहवाघर के बाहर खड़े), 15 मई, 1960'''
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