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Kavita Kosh से
बरस बीतगा रेत में
न्हातां पाणी गे'र ॥
फूल खिले नी पांखाड़ी
लूवां रो रमझोळ ।
तुणको तक नी पांगरै
के प्राणां रो डोळ ॥
रळता, मिलता, बैठता,
करता मन री बात ।
चरभर बाजी खेलता
सै सुपना री बात ॥
घर में पाव न पीसणों
तिरस्या डांगर ढ़ोर ।
रूसी कुदरत कद मनै
माणख रो के जोर ॥
घणे कोड सूं बाछड़ो
पाळ्यो,बणगो बैल ।
पड्यो बेचणों भूख सूं
भाटो मन पर मेल ।।
पिणघट री रौनक गई
बापरगी सूनेड़।
जण-जण रै दुख सूं पडी
तालां मांय तरेड़ ॥
म्हैलां जगतो दीवलो
सारी सारी रात ।
पण फेरयूं भी रैंवती
आधी मन री बात ।।