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|संग्रह=खुली आँखों में आकाश / दिविक रमेश
}}
{{KKCatKavita}}छूइये<poem>छुइए
मगर हौले से
कि यह कविता
शमशेर की है।है ।
और यह जो
एक-आध पाँखुरी
बिखरी
:सी
:::है
::::न?
इसे भी
न हिलाना।हिलाना ।
बहुत मुमकिन है
किसी मूड में
शमशेर ने ही
इसे ऎसे ऐसे रक्खा हो।हो ।
दरअसल
शरीर र्में जैसे
हर चीज़ अपनी जगह है
शमशेर की कविता है।है ।
देखो
शब्द समझ
कहीं पाँव न रख देना
:::अभी गीली है
जैसे आंगनआँगन
माँ ने माटी से
अभी-अभी लीपा है
शमशेर की कविता है।
</poem>