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भौतिकता और चेतना के दो घटवाली जीवन-काँवरधरती तल में उगी घासयों ही अनायास, लेकर आता है जीवपलती रही धरती के क्रोड़ में, श्वास की त्रिगुण डोर मटीले आँचल में अटका कर.हाथ-पाँव फैलाती आसपास .मौसमी फूल नहीं हूँकि,यत्न से रोपी जाऊँ, पोसी जाऊँ!
हर बार नये ही निर्धारणतरह से, काँवरिये की यात्रा के पथरोकना चाहा, .चक्रिल राहों पर भरमाताकि हट जाऊँ मैं, देता धरती माँ का आँचल पाट कर ईंटों सेकि कहीं जगह न पाऊँ .पर कौन रोक पाया मुझे?जहाँ जगह मिलीसँधों में जमें माटी कणों सेफिर बरस-बरस भाँवर फिर फूट आई.
घट में धारण कर लिया आस्थासिर उठा चली आऊँगी, जहाँ तहाँ, यहाँ -विश्वासों का संचित जलवहाँ, अर्पित आहत भले होऊँहत नहीं होती, झेल कर महाकाल को फिरआघात, चल देता अपने नियतस्थलजीना सीख लिया है, उपेक्षाओँ के बीचअदम्य हूँ मैं!
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