भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKRachna
|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
}}
{{KKPrasiddhRachna}}
<poem>
बीती विभावरी जाग री ! अम्बर पनघट में डुबो रही- तारा-घट ऊषा नागरी ।
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहाकिसलय का अंचल डोल रहालो यह लतिका भी भर लाई-मधु मुकुल नवल रस गागरी अधरों में राग अमंद पिए,अलकों में मलयज बंद किए- तू अब तक सोई है आली ! आँखों में भरे विहाग री ।!
</poem>