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|रचनाकार=ख़ान-ए-आरज़ू सिराजुद्दीन अली
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<poem>
सात परवाने की उल्फ़त सती रोते रोते
शम्अ ने जान दिया सुब्ह के होते होते

दाग़ छूटा नहीं ये किस का लहू है क़ातिल
हाथ भी दुख गए दामन तिरा धोते धोते

किस परी-रू से हुई रात मिरी चश्म दो चार
कि मैं दीवाना उठा ख़्वाब से रोते रोते

ग़ैर लूटे हैं समन मुफ़्त तिरे ख़त की बहार
हम यूँही अश्क के दाने रहे बोते बोते
</poem>
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