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{{KKRachna
|रचनाकार=सविता सिंह
|संग्रह=नींद थी और रात थी
}}

उधर जिधर आसमान में घने बादल थे

और बिजली थी

जिधर हवाओं का शोर था

मैदान में पेड़ों की तरह उग आई लहलहाती घास थी

उधर ही मेरा मन था अबाध कब से कुछ सोचता हुआ


साथ में कुछ और न था

बस एक हल्की ख़ुशी थी चीज़ों के यूँ होने की

एक झुरझुरी बदन में जाने कैसी
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