भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
पाषाण युग की निर्ममता पर निशाना साध कर
उन दिनों हम अपने पालतू सपनों को एक-एक कर उड़ा देना चाहते थे
यह भी देखना चाहते थे कि उन सपनो सपनों को कितना बड़ा आस्माँ मिलता हैबरसो बरसों ख़ून टपकता आया था इन सपनो सपनों का हमारी रूह के आँगन मे
और इनके फलित न होने का मलाल, मलाल बन कर ही रह गया था
फिर भी ये सपने जाते-जाते अपने पद-चिन्ह छोड गए थे