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07:17, 25 जनवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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<poem>
जब ज़ुल्फ़ तेरी मुझ पे बिखरती नज़र आये
बिगड़ी हुर्इ तक़दीर संवरती नज़र आये
हौले से सबा1 जब भी गुज़रती नज़र आये
तस्वीर तेरी दिल में उतरती नज़र आये
ये मंज़िले-उल्फ़त2 तो नहीं अहदे-गुज़श्ता3
इक याद थी दिल में जो बिसरती नज़र आये
होटों की हंसी ताज़गी-ए-ज़ख़्म है यारों
दिल में ये छुरी बन के उतरती नज़र आये
मलबूसे-मसीहा4 में छुपे बैठे हैं क़ातिल
अब ज़ीस्त5 न क्यों इन से भी डरती नज़र आये
बख्शी है 'कंवल’ मैंने ग़मे-ज़ीस्त को शोहरत
मै हूं कि हंसी लब पे संवरती नज़र आये
1.प्रभातसमीर 2. अनुरागकागंतव्य 3. गुजराहुआकाल 4. मसीहाकेभेषमें 5. जीवन।
</poem>
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