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'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया
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{{KKRachna
|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
|अनुवादक=
|संग्रह=चोखे चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
सिर! उछालीं पगड़ियाँ तुम ने बहुत।
कान कितनों का कतर यों ही दिया।
लोग भारी कह भले ही लें तुम्हें।
पर तुमारा देख भारीपन लिया।
सूझ के हाथ पाँव जो न चले।
जो बनी ही रही समझ लँगड़ी।
तो तुमारी न पत रहेगी सिर।
पाँव पर डालते फिरे पगड़ी।
जब तुम्हीं ने सब तरह से खो दिया।
तो बता दो काम क्या देती सई।
सोच है पगड़ी उतरने का नहीं।
सिर! तुमारी तो उतर पत भी गई।
देखता हूँ आजकल की लत बुरी।
सिर तुमारी खोपड़ी पर भी डटी।
लाज पगड़ी की गँवा, मरजाद तज।
जो तुमारी टोपियों से ही पटी।
दो जने कोई बदल करके जिन्हें।
कर सके भायप रँगों में रँग बसर।
है तुमारे सारपन की ही सनद।
सिर तुमारी उन पगड़ियों का असर।
</poem>
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|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
|अनुवादक=
|संग्रह=चोखे चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
}}
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<poem>
सिर! उछालीं पगड़ियाँ तुम ने बहुत।
कान कितनों का कतर यों ही दिया।
लोग भारी कह भले ही लें तुम्हें।
पर तुमारा देख भारीपन लिया।
सूझ के हाथ पाँव जो न चले।
जो बनी ही रही समझ लँगड़ी।
तो तुमारी न पत रहेगी सिर।
पाँव पर डालते फिरे पगड़ी।
जब तुम्हीं ने सब तरह से खो दिया।
तो बता दो काम क्या देती सई।
सोच है पगड़ी उतरने का नहीं।
सिर! तुमारी तो उतर पत भी गई।
देखता हूँ आजकल की लत बुरी।
सिर तुमारी खोपड़ी पर भी डटी।
लाज पगड़ी की गँवा, मरजाद तज।
जो तुमारी टोपियों से ही पटी।
दो जने कोई बदल करके जिन्हें।
कर सके भायप रँगों में रँग बसर।
है तुमारे सारपन की ही सनद।
सिर तुमारी उन पगड़ियों का असर।
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