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{{KKRachna
|रचनाकार=महेश वर्मा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
कोई नदी नहीं थी एक जर्जर पुल था
उस रात वहां नीचे बह रहा था अन्धकार
और एक दोस्त था कुछ कहता हुआ लगातार
कि बस एक नदी बची है हमारे शहर में
यहीं आ जाता हूँ किसी किसी रात
और चुपचाप देखता रहता हूँ इसका धीमे धीमे बहना
बरसात में इसका पानी मटमैला हो जाता है
अभी इतने बीते हुए समय
और इतनी बीती हुई दूरियों की सड़कें पार करके भी
आवाज़ में फंस रही है रेत यह कहने में
कि नदी की याद के किनारे बैठे थे
नदी कोई नहीं थी एक जर्जर पुल था
नीचे बह रहा था अन्धकार।
</poem>
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|संग्रह=
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कोई नदी नहीं थी एक जर्जर पुल था
उस रात वहां नीचे बह रहा था अन्धकार
और एक दोस्त था कुछ कहता हुआ लगातार
कि बस एक नदी बची है हमारे शहर में
यहीं आ जाता हूँ किसी किसी रात
और चुपचाप देखता रहता हूँ इसका धीमे धीमे बहना
बरसात में इसका पानी मटमैला हो जाता है
अभी इतने बीते हुए समय
और इतनी बीती हुई दूरियों की सड़कें पार करके भी
आवाज़ में फंस रही है रेत यह कहने में
कि नदी की याद के किनारे बैठे थे
नदी कोई नहीं थी एक जर्जर पुल था
नीचे बह रहा था अन्धकार।
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