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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>प्रगटे अभिराम स्याम रसिक ब्रज-बिहारी।
बृंदावन नंद-भवन जन-मन-सुखकारी।

हरन विषम भूमि-भार, करन दुष्ट-दल-‌उधार।
सरन संत-जन उबार, अखिल अघ-बिदारी॥-प्रगटे०॥

मुदित भ‌ए प्रेमी जन, संत भ‌ए निर्भय मन।
डरे सकल खल-दुर्जन, अघी-‌अनाचारी॥-प्रगटे०॥

आनँद अपार छयौ, दुःख-सोक-कुडर गयौ।
गोकुल अब अतुल भयौ, उदये अवतारी॥-प्रगटे०॥

बरस्यौ रस-मेह अमित, रस-सरिता बही अजित।
चली सकल पवन-हित, अग-जग-हितकारी॥-प्रगटे०॥

सब कें अति हिय हुलास, नंद-सु‌अन-दरस-‌आस।
दौरे तजि-तजि निवास, आतुरता भारी॥-प्रगटे०॥

पहुँचे नँद-महल हाल, दरसन करि अति निहाल-
भ‌ए सकल ग्वालि-ग्वाल, पुलक अंगझारी॥-प्रगटे०॥

पायौ सब सुख अपार, उतर्‌यौ सब मोह-भार।
तन-मन सब दि‌ए वार, गोकुल-नर-नारी॥-प्रगटे०॥
</poem>
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