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Kavita Kosh से
|रचनाकार=कबीर
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<poem>
गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव।
खेत बुहार्या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव॥1॥
भावार्थ - गगन दमामा बाजियामें युद्ध के नगाड़े बज उठे, पड्या निसानैं घाव ।<br>खेत बुहार्या सूरिमैऔर निशान पर चोट पड़ने लगी। शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, मुझ मरणे तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का चाव ॥1॥ <br><br>उत्साह चढ़ रहा है।'
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती हैअब तो झूझते बनेगा, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है । पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं छोड़ता ।<br><br>, कभी हिचकता नहीं।
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ जिस मरण से मुड़ोगे दुनिया डरती है, उससे मुझे तो घर तो बहुत दूर रह गया आनन्द होता है । साईं ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं!कायर बहुत पमांवहीं, कभी हिचकता नहीं ।<br><br>बहकि न बोलै सूर।काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर॥7॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती कबीर कहते हैं - यह प्रेम का घर है, उससे मुझे तो आनन्द होता किसी खाला का नहीं , वही इसके अन्दर पैर रख सकता है ,कब मरूँगा जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले। [ सीस अर्थात अहंकार। पाठान्तर है `भुइं धरै'। यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता है। सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द निरहंकारिता को !<br><br>व्यक्त करता है।]
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते कबीर कहते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं । यह -अपना खुद का घर तो काम आने पर इस जीवात्मा का प्रेम ही जाना जा सकता है। मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है , और लम्बा इतना कि शूरवीरता उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम रस का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता स्वाद तभी सुगम हो सकता है ।<br><br>, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय।
भावार्थ - कबीर कहते हैं - यह अरे भाई ! प्रेम का घर है, किसी खाला का खेतों में नहीं उपजता, वही इसके अन्दर पैर रख सकता और न हाट-बाजार में बिका करता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले । [ सीस अर्थात अहंकार । पाठान्तर है `भुइं धरै' । यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता महँगा है । और सस्ता भी - यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और निरहंकारिता को व्यक्त करता है ।] <br><br>देकर खरीद ले जा सकता है।
`कबीर' निज घर घोड़ा प्रेम का, मारग अगम अगाध ।<br>चेतनि चढ़ि असवार।सीस उतारि पग तलि धरैग्यान खड़ग गहि काल सिरि, तब निकट प्रेम का स्वाद ॥9॥<br><br>भली मचाई मार॥11॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम क्या ही मार-धाड़ मचा दी है । मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट इस चेतन शूरवीर ने।सवार हो गया है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा । प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता के घोड़े पर। तलवार ज्ञान की ले ली है, जब कि अपने और काल-जैसे शत्रु के सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय ।<br><br>पर वह चोट- पर-चोट कर रहा है।
भावार्थ - अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता मेरे अगर उतने भी - यों कि राजा शत्रु हो या प्रजाजायं, कोई जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी उसे मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर देकर खरीद ले जा सकता है ।<br><br>रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने का नहीं।
भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्या सिर सौंपकर ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने ।सवार हो गया है प्रेम हरि की सेवा करनी चाहिए। जीव के घोड़े स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए। सिर देने पर । तलवार ज्ञान की ले ली यदि हरि से मिलन होता है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर तो यह न समझा जाय कि वह चोट- पर-चोट कर रहा है ।<br><br>कोई घाटे का सौदा है।