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सूरातन का अंग / कबीर

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|रचनाकार=कबीर
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<poem>
गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव।
खेत बुहार्‌या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव॥1॥
भावार्थ - गगन दमामा बाजियामें युद्ध के नगाड़े बज उठे, पड्या निसानैं घाव ।<br>खेत बुहार्‌या सूरिमैऔर निशान पर चोट पड़ने लगी। शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, मुझ मरणे तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का चाव ॥1॥ <br><br>उत्साह चढ़ रहा है।'
भावार्थ - गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी । शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का उत्साह चढ़ रहा है ।कबीर'<br><br>सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ। पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥2॥
`भावार्थ - कबीर' सोई सूरिमाकहते हैं - सच्चा सूरमा वह है, जो अपने वैरी मन सूं मांडै झूझ । <br>पंच पयादा पाड़ि लेसे युद्ध ठान लेता है, दूरि करै सब दूज ॥2॥<br><br>पाँचों पयादों को जो मार भगाता है, और द्वैत को दूर कर देता है। [ पाँच पयादे, अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर। द्वैत अर्थात् जीव और ब्रह्म के बीच भेद-भावना।]
भावार्थ - `कबीर कहते हैं - सच्चा सूरमा वह है' संसा कोउ नहीं, जो अपने वैरी मन से युद्ध ठान लेता है, पाँचों पयादों को जो मार भगाता है, और द्वैत को दूर कर देता है । [ पाँच पयादे, अर्थात हरि सूं लाग्गा हेत।काम, क्रोधसूं झूझणा, लोभ, मोह और मत्सर। द्वैत अर्थात् जीव और ब्रह्म के बीच भेद-भावना ।]<br><br>चौड़ै मांड्या खेत॥3॥
`भावार्थ - कबीर' संसा कोउ कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहींरहा, और हरि सूं लाग्गा हेत ।<br>से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत ॥3॥<br><br>से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।
भावार्थ सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत। पुरिजा- कबीर कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहापुरिजा ह्वै पड़ै, और हरि से लगन जुड़ गई । इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में ।<br><br>तऊ न छांड़ै खेत॥4॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।
सूरा तबही परषियेअब तौ झूझ्या हीं बणै, लड़ै धणी के हेत । <br>मुड़ि चाल्यां घर दूर।पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ैसिर साहिब कौं सौंपतां, तऊ सोच छांड़ै खेत ॥4॥<br><br>कीजै सूर॥5॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती हैअब तो झूझते बनेगा, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है । पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं छोड़ता ।<br><br>, कभी हिचकता नहीं।
अब तौ झूझ्या हीं बणैजिस मरनैं थैं जग डरै, मुड़ि चाल्यां घर दूर ।<br>सो मेरे आनन्द।सिर साहिब कौं सौंपतांकब मरिहूं, सोच न कीजै सूर ॥5॥<br><br>कब देखिहूं पूरन परमानंद॥6॥
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ जिस मरण से मुड़ोगे दुनिया डरती है, उससे मुझे तो घर तो बहुत दूर रह गया आनन्द होता है । साईं ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं!कायर बहुत पमांवहीं, कभी हिचकता नहीं ।<br><br>बहकि न बोलै सूर।काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर॥7॥
जिस मरनैं थैं जग डरैभावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, सो मेरे आनन्द ।<br>शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है।कब मरिहूं`कबीर' यह घर पेम का, कब देखिहूं पूरन परमानंद ॥6॥<br><br>खाला का घर नाहिं।सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं॥8॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती कबीर कहते हैं - यह प्रेम का घर है, उससे मुझे तो आनन्द होता किसी खाला का नहीं , वही इसके अन्दर पैर रख सकता है ,कब मरूँगा जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले। [ सीस अर्थात अहंकार। पाठान्तर है `भुइं धरै'। यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता है। सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द निरहंकारिता को !<br><br>व्यक्त करता है।]
कायर बहुत पमांवहीं`कबीर' निज घर प्रेम का, बहकि न बोलै सूर ।<br>मारग अगम अगाध।काम पड्यां हीं जाणियेसीस उतारि पग तलि धरै, किस मुख परि है नूर ॥7॥<br><br>तब निकट प्रेम का स्वाद॥9॥
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते कबीर कहते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं । यह -अपना खुद का घर तो काम आने पर इस जीवात्मा का प्रेम ही जाना जा सकता है। मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है , और लम्बा इतना कि शूरवीरता उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम रस का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता स्वाद तभी सुगम हो सकता है ।<br><br>, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय।
`कबीर' यह घर पेम काप्रेम न खेतौं नीपजै, खाला का घर नाहिं ।<br>प्रेम न हाटि बिकाइ।सीस उतारे हाथि धरिराजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो पैसे घर माहिं ॥8॥<br><br>ले जाइ॥10॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - यह अरे भाई ! प्रेम का घर है, किसी खाला का खेतों में नहीं उपजता, वही इसके अन्दर पैर रख सकता और न हाट-बाजार में बिका करता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले । [ सीस अर्थात अहंकार । पाठान्तर है `भुइं धरै' । यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता महँगा है और सस्ता भी - यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और निरहंकारिता को व्यक्त करता है ।] <br><br>देकर खरीद ले जा सकता है।
`कबीर' निज घर घोड़ा प्रेम का, मारग अगम अगाध ।<br>चेतनि चढ़ि असवार।सीस उतारि पग तलि धरैग्यान खड़ग गहि काल सिरि, तब निकट प्रेम का स्वाद ॥9॥<br><br>भली मचाई मार॥11॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम क्या ही मार-धाड़ मचा दी है । मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट इस चेतन शूरवीर ने।सवार हो गया है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा । प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता के घोड़े पर। तलवार ज्ञान की ले ली है, जब कि अपने और काल-जैसे शत्रु के सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय ।<br><br>पर वह चोट- पर-चोट कर रहा है।
प्रेम न खेतौं नीपजैजेते तारे रैणि के, प्रेम न हाटि बिकाइ ।<br>तेतै बैरी मुझ।राजा परजा जिस रुचैधड़ सूली सिर कंगुरैं, सिर दे सो ले जाइ ॥10॥<br><br>तऊ न बिसारौं तुझ॥12॥
भावार्थ - अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता मेरे अगर उतने भी - यों कि राजा शत्रु हो या प्रजाजायं, कोई जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी उसे मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर देकर खरीद ले जा सकता है ।<br><br>रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने का नहीं।
`कबीर' घोड़ा प्रेम कासिरसाटें हरि सेविये, चेतनि चढ़ि असवार ।<br>छांड़ि जीव की बाणि।ग्यान खड़ग गहि काल सिरिजे सिर दीया हरि मिलै, भली मचाई मार ॥11॥<br><br>तब लगि हाणि न जाणि॥13॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्या सिर सौंपकर ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने ।सवार हो गया है प्रेम हरि की सेवा करनी चाहिए। जीव के घोड़े स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए। सिर देने पर । तलवार ज्ञान की ले ली यदि हरि से मिलन होता है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर तो यह न समझा जाय कि वह चोट- पर-चोट कर रहा है ।<br><br>कोई घाटे का सौदा है।
जेते तारे रैणि के`कबीर' हरि सबकूं भजै, तेतै बैरी मुझ ।<br>हरि कूं भजै न कोइ।धड़ सूली सिर कंगुरैंजबलग आस सरीर की, तऊ तबलग दास बिसारौं तुझ ॥12॥<br><br>होइ॥14॥
भावार्थ - मेरे अगर उतने भी शत्रु हो जायं, जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने का नहीं ।<br><br>  सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि ।<br>जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥13॥<br><br> भावार्थ - सिर सौंपकर ही हरि की सेवा करनी चाहिए । जीव के स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए । सिर देने पर यदि हरि से मिलन होता है, तो यह न समझा जाय कि वह कोई घाटे का सौदा है ।<br> `कबीर' हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ ।<br>जबलग आस सरीर की, तबलग दास न होइ ॥14॥<br><br> भावार्थ - कबीर कहते हैं -हरि तो सबका ध्यान रखता है,सबका स्मरण करता है , पर उसका ध्यान-स्मरण कोई नहीं करता । करता। प्रभु का भक्त तबतक कोई हो नहीं सकता, जबतक देह के प्रति आशा और आसक्ति है ।है।</poem>
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