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Kavita Kosh से
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अब चले आओ निमोही द्वार
मिल गया बरसात को इतवार
साथ इन चंचल हवाओं के
पंख फैला कर दिशाओं के
उड़ न जाए मिलन का त्यौहार
धमनियों में स्नेह के बादल
कर रहे ख़ामोश कोलाहल
पलक पर हैं प्यास के अंगार
धूप गोरी छोड़ कर अम्बर
आ गई छत की मुण्डेरी पर
आइना धर कर रही शृंगार
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