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<poem>
(राग मलार-ताल रूपक)

सुन्यो तेरो पतित-पावन नाम!
अजामिल-से पतितको तैं दियो अपनो धाम॥
याध-खग-मृग जे रहे नित धरम तें उपराम।
किये पावन अति पतित ते भये पूरन-काम॥
कठिन कलि के काल अपि तारे अनेक कुंठाम।
धरमहीन, मलीन, पातक निरत आठों जाम॥
पाप करत उछाह-जुत, मम मन न लीन्ह बिराम।
तदपि अजहुँ न मोहि तार्‌यौ, किमि बिसार्‌यौ नाम॥
</poem>
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