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Kavita Kosh से
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हवा से मैंने प्रेम के बारे में पूछा
वह उदास वृझों वृक्षों के पास चली गई
सूरज से पूछा
वह निश्चिंत निश्चिन्त चट्टानों पर सोया रहा
चन्द्रमा से मैंने पूछा प्रेम के बारे में
वह इंतज़ार इन्तज़ार करता रहा
लहरों और लौटती हुई पूर्णिमा का
समुद्र था और तैरते हुए जहाज़
एकान्त था और सभाएँ
प्रेम के दिन थे अनंतअनन्त
और एक दिन था