भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शुक्रतारा / मदन वात्स्यायन

497 bytes added, 05:57, 30 सितम्बर 2014
{{KKCatKavita}}
<poem>
नए दूल्हे-सा सूरज , नववधू सा पीछे-पीछे यह शुक्रतारा जा रहा है
बदल रहा है रंग आसमां आसमाँ का क्षण-क्षण बदल-बदल यह जगमगा रहा हैइंजन के हेडलाइट-सा ; शोरगुल के बीच सूरज निकल गया
गार्ड की रोशनी-सा पीछे पीछे गुमसुम अब
शुक्रतारा जा रहा है ।
हमारी बस्ती में दिये -से , बल्ब -से (पैट्रोमैक्स-सा चाँद), चारों ओर बल उठे तारे
दूरी में बैलगाड़ी की लालटेन-सा यह
शुक्रतारा जा रहा है ।
शहर को अँधेरा कर हवाईजहाज़ हवाई जहाज़ से मिनिस्टर चले गएजनता ’जनता’ से एम० एल० ए०-सा पीछे-पीछे यह शुक्रतारा जा रहा है।है ।
कि भटक न जाएँ , राहगीरों की ख़ातिर शाम को जला के मशाल अब शुक्रतारा जा रहा है । तपता सूर्य गया चिल्लाते राह दिखाते ’राह दिखाते’ कौड़ियों -से सितारे दौड़ आ भरेअपने सब कुछ की रमाने धूनी अब क्राँतिदृष्टाक्रान्ति-दृष्टा शुक्रतारा जा रहा है ।
है नेहरू एक वतन का प्यारा सताए हुओं को है
जिस पर भरोसा ।
हमारा आँखों में अब भी चमक है कि बीच आसमाँ में
वह सितारा जगमगा रहा है ।
बीबी बीवी, सजा दियों का थाल लाओ , ज्योति भर लो ।कि हमारे आसमान को सूना कर के रक्ष के रश्के देवता यह शुक्रतारा जा रहा है ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,708
edits