भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पपीहा बोलि जारे / पढ़ीस

30 bytes removed, 11:00, 7 नवम्बर 2014
{{KKRachna
|रचनाकार=पढ़ीस
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}{{KKCatAwadhiRachna}}
<poem>
पपीहा बोलि जा रे!हाली डोलि जा रे !बादर बइरी<ref>वैरी, दुश्मन, शत्रु</ref> रूप बनावयिंमारयिं बूँदन बान।तिहि पर तुइ पिउ-पिउ ग्वहरावइहाँकन हूकु न, मानु। पपीहा बोलि जा रे !हाली डोलि जा रे!
बादर ब‍इरी रूप बनावयिंमारयिं बूँदन बानु।तिहिं पर तुइ पिउ-पिउ ग्वहराव‍इहाँकन हूकु न, मानु। पपीहा बोलि जा रे!पपीहा डोलि जा रे! हाली डोलि जा रेतपि-तपि रहिउँ तपंता रहिउऊ तंपता साथी
लूकन लूक न लागि।
जागि रहे उयि कहूँ कँधैया
दागि बिरह की आगि।
 पपीहा बोलि जा रे!पपीहा हाली डोलि जा रे! 
छिनु-छिनु पर छवि हायि न भूलयि
हूलयि हिया हमार।
साजन आवयिं तब तुइ आये
आजु बोलु उयि पार।
 पपीहा बोलि जा रे!पपीहा हाली डोलि जा रे! '''शब्दार्थ : ब‍इरी = बैरी, दुश्मन, शत्रु।</Poempoem>{{KKMeaning}}