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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया है
 
कि होती जाती है,
 
यह छोटा-सा जाना हुआ क्षण है
 
कि हो कर नहीं देता;
 
यह मैं हूँ
 
कि जिस में अविराम भीड़ें रूप लेती
 
उमड़ती आती हैं,
 
यह भीड़ है
 
कि उस में मैं बराबर मिटता हुआ
 
डूबता जाता हूँ;
 
ये पहचानें हैं
 
जिन से मैं अपने को जोड़ नहीं पाता
 
ये अजनबियतें हैं
 
जिन्हें मैं छोड़ नहीं पाता ।
 
 
मेरे भीतर एक सपना है
 जिसे मैं देखता हूँ कि जो मुझे देखता है, मैं नहीं जान पाता ।पाता।
यानी कि सपना मेरा है या मैं सपने का
 इतना भी नहीं पहचान पाता । पाता।
और यह बाहर जो ठोस है
 (जो मेरे बाहर है या जिस के मैं बाहर हूँ ?) 
मुझे ऐसा निश्चय है कि वह है, है;
 
जिसे कहने लगूँ तो
 
यह कह आता है
 कि ऐसा है कि मुझे निश्चय है !</poem>
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