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|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
न राहुल से न मोदी से न ख़ाकी से न खादी से।
वतन की भूख मिटती है तो होरी की किसानी से।

ये फल दागी हैं मैं बोला तो फलवाले का उत्तर था,
मियाँ इस देश में सरकार तक चलती है दागी से।

ख़ुदा के नाम पर जो जान देगा स्वर्ग जायेगा,
ये सुनकर मार दो जल्दी कहा सबने शिकारी से।

ये रेखा है गरीबी की जहाजों से नहीं दिखती,
ज़मीं पर देख लोगे पूछकर अंधे भिखारी से।

चुने जिसको, सहे उसके सितम चुपचाप ये ‘सज्जन’,
ज़माने तंग आया मैं तेरी आशिक मिज़ाजी से।
</poem>
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