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|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
साथ चल के भी मिल न पाये हम।
आप थे धूप और साये हम।

साल दो साल लड़खड़ाये हम।
दौड़ना तब ही सीख पाये हम।

जलजले सा वो छू गये हमको,
और इमारत से थरथराये हम।

रोज़ वो काटते गये हमको,
रोज़ उनसे बढ़े सवाये हम।

यूँ बुलाया के दास हों उनके,
और शिकवा है क्यूँ न आये हम।

एक बर्तन में बर्फ़ पानी से,
या ख़ुदा यूँ न हों पराये हम।

इस कदर रौंदती रहीं सदियाँ,
धूल बन आसमाँ पे छाये हम।
</poem>
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