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{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
है ये अनुभव की बात माना कर।
झूठ खाता है मात माना कर।
लाल चश्मा पहन के कोई भी,
कर सके रक्तपात माना कर।
रौशनी में न बस हरा भगवा,
रंग होते हैं सात माना कर।
अश्क-ए-मज़लूम पी के देख जरा,
है ये आब-ए-हयात माना कर।
तम से डर-डर के जी न पायेगा,
रोज होती है रात माना कर।
</poem>
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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
है ये अनुभव की बात माना कर।
झूठ खाता है मात माना कर।
लाल चश्मा पहन के कोई भी,
कर सके रक्तपात माना कर।
रौशनी में न बस हरा भगवा,
रंग होते हैं सात माना कर।
अश्क-ए-मज़लूम पी के देख जरा,
है ये आब-ए-हयात माना कर।
तम से डर-डर के जी न पायेगा,
रोज होती है रात माना कर।
</poem>