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{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हम काफ़िया रदीफ़ बहर नाप रहे हैं।
वो हैं के पाँव पाँव शहर नाप रहे हैं।
सब सो रहे हैं चैन से याँ ओढ़ के चद्दर,
सरहद पे रात भर वो पहर नाप रहे हैं।
कुछ भूख से मरे तो कई छोड़ गए घर,
सूखे का आज भी वो कहर नाप रहे हैं।
हम तो गए हैं डूब, मिला आग का दरिया,
दुनिया समझ रही है लहर नाप रहे हैं।
लोकल के इंतजार में टेशन पे खड़े हम,
सूरज समझ रहा है सहर नाप रहे हैं।
</poem>
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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
हम काफ़िया रदीफ़ बहर नाप रहे हैं।
वो हैं के पाँव पाँव शहर नाप रहे हैं।
सब सो रहे हैं चैन से याँ ओढ़ के चद्दर,
सरहद पे रात भर वो पहर नाप रहे हैं।
कुछ भूख से मरे तो कई छोड़ गए घर,
सूखे का आज भी वो कहर नाप रहे हैं।
हम तो गए हैं डूब, मिला आग का दरिया,
दुनिया समझ रही है लहर नाप रहे हैं।
लोकल के इंतजार में टेशन पे खड़े हम,
सूरज समझ रहा है सहर नाप रहे हैं।
</poem>