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सर्द रातों में भी काँपते काँपते
मुफ़लिसी चल पड़ी हाँफते हाँफते
चार पैसों की ख़ातिर वह बीमार माँ
जा रही है कहाँ कहीं खाँसते खाँसते
खा के दिन में भी सोयें, तो काटें कई
सूद के बदले जबरन मवेशी ही वह
खाइयाँ नफ़रतों की बढ़ीं इस क़दर
नाफ़ में जिसकी केसर हो आहू 'रक़ीब'
थक गए हैं गया है बहुत ढूँढते ढूँढते
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