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मुफ़्त में नेकियाँ मिलती थीं शजर<ref>पेड़</ref> था घर में
अब हैं महरूम<ref>वंचित</ref> परिंदों की भी मेहमानी से
 
रात देखो न कभी दिन का कोई पास रखो
मैं तो हारा हूँ बहुत आप की मन मानी से
मैं वही हूँ के मिरी क़द्र न जानी तुमने