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अनुभव-1 / सुकान्त भट्टाचार्य

No change in size, 21:34, 20 अगस्त 2015
<poem>
अवाक् पृथ्वी । अवाक् कर दिया तुमने ।
जन्म से ही देखता हूँ श्रुब्ध क्षुब्ध स्वदेश भूमि ।
अवाक् पृथ्वी । हम लोग हैं पराधीन
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