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'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नारायणलाल परमार |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नारायणलाल परमार
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>दूर-दूर तक गूँजा करता
है दादा जी का खर्राटा।
पत्ते थर-थर काँप रहे हैं,
पेड़ खड़े हैं हक्के-बक्के।
बरामदे के हर खंभे के,
मानो छूट रहे हैं छक्के।
भरी दोपहर दूर-दूर तक
नजर नहीं आता सन्नाटा!
आँधी पास नहीं आती है,
छूट रहा है उसे पसीना!
पशु-पक्षी लें कहाँ बसरेा,
मुश्किल हुआ सभी का जीना।
याद नहीं होगा मौसम को,
लगा कभी ऐसा झन्नाटा।
नीकू-चीकू भी डरते हैं,
जैसे टैंक चल रहा कोई।
या कि फिर भट्ठी में भारी,
लोहा अभी ढल रहा कोई।
आसमान से नीचे आकर
नहीं मारती चील झपाटा!
</poem>
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|संग्रह=
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<poem>दूर-दूर तक गूँजा करता
है दादा जी का खर्राटा।
पत्ते थर-थर काँप रहे हैं,
पेड़ खड़े हैं हक्के-बक्के।
बरामदे के हर खंभे के,
मानो छूट रहे हैं छक्के।
भरी दोपहर दूर-दूर तक
नजर नहीं आता सन्नाटा!
आँधी पास नहीं आती है,
छूट रहा है उसे पसीना!
पशु-पक्षी लें कहाँ बसरेा,
मुश्किल हुआ सभी का जीना।
याद नहीं होगा मौसम को,
लगा कभी ऐसा झन्नाटा।
नीकू-चीकू भी डरते हैं,
जैसे टैंक चल रहा कोई।
या कि फिर भट्ठी में भारी,
लोहा अभी ढल रहा कोई।
आसमान से नीचे आकर
नहीं मारती चील झपाटा!
</poem>