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Kavita Kosh से
खुले किवाड़ दिखे तो झाँका भीतर सन्नाटा पसरा था
दीवारें इतिहास बनी थी सपने छत से लटक रहे थे
दस्तक दी तो हिलाडुला हिला डुला कुछ, बुझी हुइ आबाज सी आई
"कौन है भाई?"-बोला कोई
मुझ को भी मालूम कहाँ था कौन हूं मैं