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सपने छत से लटक रहे थे / पृथ्वी पाल रैणा
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14:55, 5 अक्टूबर 2015
खुले किवाड़ दिखे तो झाँका भीतर सन्नाटा पसरा था
दीवारें इतिहास बनी थी सपने छत से लटक रहे थे
दस्तक दी तो
हिलाडुला
हिला डुला
कुछ, बुझी हुइ आबाज सी आई
"कौन है भाई?"-बोला कोई
मुझ को भी मालूम कहाँ था कौन हूं मैं
द्विजेन्द्र ‘द्विज’
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