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आत्मन का लिबास / राजी सेठ

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<poem>घर भर को प्यारी
बहुत दुलारी
चौखट के भीतर पैर रख चुकी दिपदिपाती स्त्री
प्यारी क्यों न होती
स्त्री के पास ही तो था जादू का पिटारा
सदियों-सदियों पुराना
स्त्री के पास ही तो थे
बाबा आदम के जमाने से
सदा साथ
दो-दो हाथ
हाथों में जादू रांधता पकाना
जीमना जिमाना
जोड़ना संवारना
फटे को थिगड़ी
तपे को तरावट
रूठे को मनुहार
ढहते को दीवार
भूखे को पकवा
अलसाए को बिछौना
वंश को कोख
बिलखते को गोद

स्त्री के पास सब कुछ
कितना कुछ तो था
छत थी, खावन-खिलावन लुगड़ा-बिछावन
दो जादुई हाथ
पैर थे
देह थी
प्राण थे
आत्मन भी कहीं न कहीं तो होगा ही होगा

आत्मन का लिबास
बेसुध बौराई ने पता नहीं कब कहां
रख दिया होगा
</poem>
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