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पछुआ के निःश्वास / रति सक्सेना

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<poem>जब भी पछुआ चला करती
मां की गुनगुनाहट बरस
झप्प-झप्प बुझने लगती
मरूस्थली रेत पर
कम हो जाती उमस
बन्द कमरे की
आज भी जब आसमान
तप कर चूने लगता है
मेरे कानों में लहराने लगती है
मां के गीत की लहरियां
सागर के हाथ उठ जाते हैं ऊपर
बरसने लगते हैं गीत झनाझन
मेरे होठों से
मां के निःश्वास बन!
</poem>
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