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आसमान पर बिंदी / पूर्णिमा वर्मन

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<poem>बिंदी जो कभी थी एक बूंद रक्त
होती गई बड़ी समय के साथ
इतनी बड़ी कि
औरत ने उसे उतारा
और टांग दिया आसमान पर
सूरज की तरह
अब वह सूरज उसकी राहों को
रोशन करता है

हंसुली बरसों तक
जो लटकी रही गले में
अचानक एक दिन इतनी भारी लगी
कि
औरत ने उसे उतारा
और टांग दिया आसमान पर
चांद की तरह
ओह मन ऐसा शीतल हुआ कि
जैसे चंद्रकिरण समा गई हो
भीतर तक

किसी को पता नहीं चला
समय के साथ
औरत हो गई कितनी ऊंची
कि अपनी ही बिंदी अपनी ही हंसुली
आसमान पर टांग
अपनी राह खोज ली उसने
खोज ली अपनी शांति

लोग नहीं जानते
जो दूसरों के लिये खटने वाले
अपना भी कर सकते हैं कायापलट!
</poem>
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