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{{KKRachna
|रचनाकार=मधु आचार्य 'आशावादी'
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<Poem>सुना था
कहते हैं लोग अब भी-
दीवारों के भी कान होते हैं
इसलिए बेहतर है
हर समय सोच-समझ कर बोलना ।
पिछले काफी वर्षों से
राजधानी में जनता
चिल्लाकर
मंहगाई-मंहगाई कर रही है
किसान रो रहे हैं-
अपनी फसलों की खातिर....
सत्ता-पक्ष सब देखता
और सुनता भी है
करता वह केवल बस तेरी-मेरी।
कान तो उनके हैं ही
फिर वे सुनते क्यों नहीं !
शोर कर
जबरदस्ती उनको
सुनानी पड़ती है - आम बातें
दीवारें तो सुन लेती हैं
गुप-चुप्प पर्दों में हुई बातें
फिर मनुष्य किसे मानें
दीवारों को
या सत्ता पक्षकारों को !
'''अनुवाद : नीरज दइया'''
</Poem>
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<Poem>सुना था
कहते हैं लोग अब भी-
दीवारों के भी कान होते हैं
इसलिए बेहतर है
हर समय सोच-समझ कर बोलना ।
पिछले काफी वर्षों से
राजधानी में जनता
चिल्लाकर
मंहगाई-मंहगाई कर रही है
किसान रो रहे हैं-
अपनी फसलों की खातिर....
सत्ता-पक्ष सब देखता
और सुनता भी है
करता वह केवल बस तेरी-मेरी।
कान तो उनके हैं ही
फिर वे सुनते क्यों नहीं !
शोर कर
जबरदस्ती उनको
सुनानी पड़ती है - आम बातें
दीवारें तो सुन लेती हैं
गुप-चुप्प पर्दों में हुई बातें
फिर मनुष्य किसे मानें
दीवारों को
या सत्ता पक्षकारों को !
'''अनुवाद : नीरज दइया'''
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