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बै अर म्हैं / संजय पुरोहित

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{{KKCatKavita‎}}<poem>बै जिका काल
खड़्या हा
म्हारै कड़ूम्बै आगै
म्हारी रोटी
अर मजूरी री
लड़त खातर
बै जिका
काल लगा रैया हा
नारा बाका फाळ‘र
म्हांरै भूखै पेट री
दे‘र दुहाई
आज म्हानै
पिछाण‘न सूं ही
निजरां फेरै
आज म्हारी
लड़त खड़ी है
सागी जाग्यां
पण बै अबै
म्हारै बुकियां सूं
ले‘र ताकत
थरपीज्ग्या है
आभै थिर
कुर्सियां माथै
अबै उण खातर
म्हैं हुयग्या
कीड़ी-माछर
म्हैं पूठा आयग्या
म्हारै टापरै
म्हैं हर म्हांरी
लड़त
रोटी री अर मजूरी री
रैयी
सागी री सागी
</poem>
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