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Kavita Kosh से
सोचा कुछ नई उपमाएँ खोजूँ<br>
रुकी हुई घड़ी का चल पड़ना<br>
मेल बाक्स में किसी भूले बिसरे का खतख़त<br>कस कर लगी भूख के सामने रोटी -चटनी<br>
नहीं , मुझे कोई भी उपमान जमते नहीं<br><br>
मैंने सभी शब्दों विचारों को सहेज कर रख दिया<br>
तभी चाल के बीच से माँ की मुस्कुराहट दिखाई दी<br>
तानों, उलाहनों को पार कर<br>
खिलती मुस्कुराहट, जो अमरूद के साथ काली मिर्च- नमक देख कर भी<br>
खिल उठती<br><br>
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