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नख सिख - 5 / प्रेमघन

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{{KKRachna
|रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
|संग्रह=प्रेम पीयूष / बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
}}
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<poem>
खम्भ खरे कदली के जुरे जुग,
::जाहि चितै चित जात लुभाई।
हेम पतौअन सों लदि कै,
::लतिका इक फैलि रही छबि छाई॥
देखियै तो घन प्रेम नहीं पैं,
::खिले जुग कंज प्रसून सुहाई।
हैं फल बिम्ब मैं दाड़िम बीज,
::दई यह कैसी अपूरबताई॥
</poem>
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