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| रचनाकार= दीपक शर्मा 'दीप'
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हल्का-हल्का-गहरा-गहरा-गाढ़ा-गाढ़ा उतरा है
चाँद हथेली पर उतरा तो , पारा-पारा उतरा है I

सोच रहे थे आखिर ऐसा नूर बला का किसका है
भीड़ छँटी तो पाया हमने यार हमारा उतरा है I

पर्वत-पर्वत , मैदाँ-मैदाँ , जंगल-जंगल से होकर
मीठा-मीठा जब आया तो खारा-खारा उतरा है I

बरसों बाद पुराने-टेसन की बत्ती फिर जल उट्ठी
गाँव-गाँव में ढोल बजे हैं आज दुलारा उतरा है I

नई-नवेली दुल्हन आई बड़कू के घर , देखन को
भीड़ देखकर लगता है कि टोला सारा उतरा है I

आँखें जल्दी मूंदों सखियों और मुरादें माँगों भी
उधर देखिये ! आमसान से , टूटा तारा उतरा है I

छाप-छूप कर मेरे अपने शेर , मुझी से बोला वो
देखो-देखो 'दीप' इधर तो कितना प्यारा उतरा है I
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