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सुख के कुटका / चेतन भारती

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<poem>
अंधियारी-अंजोरी के झगरा म,
रतिहा सपनाये सपना परागे ।
गोल्लर पद पाके भूकरत हावे,
ठलहा लइका के जिन्गी लरागे।।

जुवानी के अंतस म खुसरगे हताश,
समे हा कोचकत हे लगाके अटाश ।
कतक दिन ले सियत रहय पीरा के कथरी
ओसारी म बइठे खोजत हे घाम,
पेट म रोटी के जगा हमागे पथरी।।

नंदिया के खंड़ ह मरत हे पियास,
बोहात हे संसो आगू फुदकत हे सियार ।
कहूँ संग झगरा न कहूँ संग लिगरी,
कोनो करे जिंदा कोनो दिल्लगी ।।
कलेचुप टेंवत हे पथरा म तन ला,
कुलुप अंधियार हे मानय न मन हा ।
बस्सात पटका पहिरे कतक बच्छट हीतगे,
लहरा गँवागे टोंटा सुखागे अंतस हुलगे ।

बेरोजगारी के फोरा म तड़पत जुवानी
उपेक्षा अऊ तिरस्कार के बोहात पीप
कतक दिन ले सहय, बादत हे कहानी
अऊ गुंगवाही नक्सलवाद के आगी ।
</poem>
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